प्रेम और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं....मोहनदास कर्मचंद गांधी...........मुझे मित्रता की परिभाषा व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसा मित्र पाया है जो मेरी ख़ामोशी को समझता है

Friday, March 6, 2020

श्री दीनदयाल शर्मा के रेडियो नाटक का प्रत्येक संवाद प्रामाणिक सत्य की तरह लगता है

श्री दीनदयाल शर्मा के रेडियो नाटक का प्रत्येक संवाद प्रामाणिक सत्य की तरह लगता है : वरिष्ठ उदघोषक एवं शायर श्री राजेश चडढा द्वारा पुस्तक में लिखी भूमिका
हिन्दी नाटकों का मूल संस्कृत से ही है। संस्कृत में ही विश्व की सबसे प्राचीन नाट्य परम्परा मिलती है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। नाटक एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है, परन्तु रेडियो ने श्रव्य माध्यम में ही सीमित रहते हुए नाटकों की एक नई शैली का विकास किया। नाटक के कथ्य को शब्दों, ध्वनियों और संवाद-प्रस्तुति के माध्यम से सम्प्रेषित करने के मामले में मंच नाटकों की तुलना में रेडियो नाटक कहीं अधिक सशक्त सिद्ध हुआ है। स्वतन्त्रता के बाद जितनी अधिक संख्या में रेडियो के लिए विभिन्न भाषाओं में मौलिक नाटक लिखे गए, उतने मंच के लिए नहीं लिखे गए।
रेडियो नाटकों का विकास राष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ और क्षेत्रीय स्तर पर भी। रेडियो नाटक में मंच पर कोई घटना नहीं घटती, जिसे देखा जा सके बल्कि संवादों को कुछ इस तरह से लिखा और बोला जाता है कि श्रोताओं को सुनते समय ऐसा लगे कि उनके समक्ष कोई रंगमंच पर नाटक खेला जा रहा है। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आए। रेडियो नाटक के इसी क्राफ्ट में निपुण हैं श्री दीनदयाल शर्मा। वे ऐसे लेखक हैं जो रेडियो के लिए लिखने और विशेष रूप से नाटक लिखने में गर्व का अनुभव करते हैं।
श्रव्य माध्यम की बेहतरीन समझ रखने वाले श्री दीनदयाल शर्मा की भाषाई खूबी संवाद में प्रवाह रखती है। रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं- उनमें एक है अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी ध्वनि प्रभाव । श्री दीनदयाल शर्मा का प्रत्येक नाटक आपको जहाँ चाहे ले जा सकता है- दुनिया के किसी भी कोने में, घर के भीतर, रसोई में या आंगन में, बाजार में, मेले में या एकान्त में, पहाड़ी, झरने के पास या समन्दर के किनारे। श्री शर्मा के नाटक का प्रत्येक संवाद प्रामाणिक सत्य की तरह लगता है। मसलन पात्र उस समय कहां हैं- घर के अन्दर या किसी भीड़ भरे स्थान पर, एक-दूसरे के नजदीक बैठे हैं या कुछ दूरी पर, सिचुएशन रोमांटिक है या तनावपूर्ण। छोटे एवं नाटकीय संभावना से परिपूर्ण संवाद श्री दीनदयाल शर्मा के नाटकों की विशेषता प्रतीत होती है।
आज के भागमभाग के दौर में शब्द पढऩे, कानों से सुनने के कम, आंखों से पढऩे के अधिक हो गए हैं। आज शब्द केवल देखकर महसूस किए जाते हैं। जैसे भाषा बोलने सुनने की न होकर देखने की हो गई हो ! असल में समाज में शोर ही इतना अधिक हो गया है कि हमें अपनी आवाज़ को सुनने के लिए भी अपने कान से कान लगाना पड़ रहा है। कभी अपना लोहा मनवाने वाली साहित्यिक विधा 'रेडियो नाटकÓ आज अपने को ही रेडियो पर सुनने के लिए तरस रही है। ऐसे संकट के दौर में भी श्री दीनदयाल शर्मा अपने नाटकों के माध्यम से समाज को कुछ नया देने की कोशिश में दिखते हैं। इस शोर-शराबे के बीच श्री दीनदयाल शर्मा अपनी बात कहने का साहस दिखाने के साथ-साथ अपनी भाषा और संवेदना दोनों ही स्तरों पर पाठकों तथा श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने में सक्षम दिखते हैं।
'जंग जारी हैÓ नामक इस संग्रह में नौ रेडियो नाटक हैं। ये समय-समय पर रेडियो से प्रसारित होते रहे हैं। इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये नाटक नारी के प्रत्येक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मैं चाहूँगा कि जब आप 'जंग जारी हैÓ पढ़ें तो यह याद रखें कि इस कृति के सभी नाटक श्री दीनदयाल शर्मा ने रंगमंच के लिए नहीं लिखे। ये सभी नाटक ध्वनि नाटक हैं और 'ध्वनिÓ के कैमरे से किसी भी रूप में कम सक्षम नहीं है। मुझे इस बात की खुशी है कि जिन नाटकों को रेडियो हेतु मंैने निर्देशित और प्रस्तुत किया है, वे नाटक अब पुस्तक के रूप में आपके हाथ में हंै।
-राजेश चड्ढ़ा
मोबाइल: 94143 81939

रेडियो नाटक 'जंग जारी है' श्री दीनदयाल शर्मा

ख्यातनाम साहित्यकार श्रद्धेय डाॅ.अर्जुन देव चारण द्वारा पुस्तक में लिखी भूमिका : रेडियो नाटक के माध्यम से समाज को चेतन करने का सफल प्रयास
'जंग जारी है' श्री दीनदयाल शर्मा के नौ रेडियो नाटकों का संकलन है। बाल साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार के रूप में पूरे देश में उनकी विशिष्ट पहचान है। उन्होंने हिन्दी एवं राजस्थानी दोनों भाषाओं में बच्चों के कई नाटक लिखे हैं जो स्कूलों में खेले भी जाते हैं। इस नाते यह कहा जा सकता है कि उन्हें रंगमंच का ज्ञान भी है। नाटक और नाट्य के अन्तर को समझते हुए नाटक लिखने पर ही वह नाटक मंचन के योग्य हो सकता है। किसी भी नाटक की सही पहचान उसके मंचन से ही संभव हो पाती है। रेडियो नाटक मंचीय नाटक से थोड़ी भिन्न विधा है। इसमें परोक्ष को प्रत्यक्ष की तरह प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी नाटककार को निभानी पड़ती है। जहाँ नाट्य प्रस्तुति में नाटककार को अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना पड़ता है क्योंकि जो कुछ घटित हो रहा है वह प्रेक्षक के सामने प्रत्यक्ष है किन्तु रेडियो नाटक तो सुना जा रहा है इस तरह से देखें तो वह नाटक के मूल सूत्र को ही पुन: उलट कर प्रस्तुत करता है।
नाटक को श्रव्य दृश्य काव्य माना गया है अर्थात् एक ऐसी विधा जो सुनने के साथ देखी भी जाती हो। साहित्य की अन्य विधाएँ सिर्फ पढऩे या सुनने तक ही सीमित होती हैं किन्तु नाटक इसीलिए विशिष्ट होता है कि वह सुनने के साथ ही देखा भी जाता है किन्तु रेडियो नाटक में नाटककार की चुनौती यही होती है कि वह देखने को भी सुनने के माध्यम से ही प्रस्तुत करे। अर्थात् उसके संवादों में दृश्य आ जाए या दृश्य रचा जाए जिससे उसे सुनने वाले को देखने का आनन्द भी मिलता रहे। रेडियो नाटक में इसीलिए ध्वनि प्रभाव का महत्त्व अधिक होता है।
जिस तरह से नाटक को नाट्य बनाने में निर्देशक एवं अभिनेता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है उसी तरह रेडियो नाटक को नाट्य में प्रस्तुत करने में संवाद बोलने वाले एवं उसे प्रस्तुत करने वाले प्रस्तोता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। संवाद अदायगी में सिर्फ टोन से ही सब कुछ सम्प्रेषित करना होता है। नाटक में अभिनय के चार प्रकार माने गये हैं वाचिक, आंगिक, सात्विक एवं आहार्य। इन चारों के योग से ही नाट्य प्रस्तुति संभव हो पाती है। किन्तु रेडियो नाटक में अभिनय का सिर्फ एक ही प्रकार काम में आता है और वह है वाचिक अभिनय इसलिए वहाँ संवाद बोलने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अभिनय के अन्य तीन प्रकारों को केवल अपने वाचन से श्रोता तक पहुंचाए। इसी तरह से रेडियो नाटक लिखने वाले रचनाकार के सामने भी यह चुनौती होती है कि वह संवादों में गति, क्रिया, रस को गूंथ दे।
श्री दीनदयाल शर्मा ने अपने इन नाटकों में समाज में व्याप्त तत्कालीन कुरीतियों, विसंगतियों पर चोट की है। इस तरह से ये नाटक अपने सुनने वाले को एक आदर्श समाज का प्रतिबिम्ब दिखाने की कोशिश करते हैं। 'जंग जारी है ' से तात्पर्य यही है कि समाज में इन बुराइयों के विरुद्ध लड़ाई अभी भी जारी है क्योंकि जब तक समाज की छोटी से छोटी इकाई अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति इस बात को नहीं समझेगा तब तक ये बुराइयाँ समाप्त नहीं होगी। अच्छी बात यह है कि रेडियो की पहुंच हजारों लाखों तक नहीं बल्कि करोड़ों तक होती है इसलिए ये रेडियो नाटक अपने मकसद में कामयाब होंगे और समाज में व्याप्त कन्या भ्रूण हत्या, एड्स जैसी गंभीर बीमारियां, स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले अत्याचार एवं नशे के दुष्प्रभाव के विरुद्ध एक सशक्त आवाज बनकर उभरेंगे। इन सामाजिक बुराइयों के बारे में समाज को चेतन करने के प्रयास इन रेडियो नाटकों से निस्सन्देह सफल होंगे। इन रेडियो नाटकों के लेखन के लिए श्री दीनदयाल शर्मा को साधुवाद देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में और अच्छी रचनाएं वे अपने समाज तक पहुंचाएंगे।
- डॉ. अर्जुन देव चारण

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