प्रेम और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं....मोहनदास कर्मचंद गांधी...........मुझे मित्रता की परिभाषा व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसा मित्र पाया है जो मेरी ख़ामोशी को समझता है

कविताएं

 सपने
सपने तो लेते हैं हम सब, ऊंची रखते आस,
मिले सफलता उसको, जिसके मन में हो विश्वास.

बेमतलब की बात करें हम, अधकचरा है ज्ञान,
अपनी कमजोरी पर आखिर, क्यों नहीं देते ध्यान.
दोषी खुद है मंढे और पर, किसको आए रास.

आगे बढ़ता देख न पाए, भीतर उठती आग.
कहें चोर को चोरी कर तू, मालिक को कहें जाग,
कैसे हो कल्याण हमारा, चाहें और का नाश.

अच्छा कभी न सोचेंगे हम, भाए न अच्छी बात,
ऊंची - ऊंची फेंकने वालों, के हम रहते साथ,
लाखों की चाहत है अपनी, पाई नहीं है पास.

आलस है हम सबका दुश्मन, इसको ना छोड़ेंगे,
सरल मार्ग अपनाएं सारे, खुद को ना मोड़ेंगे,
अंधकूप में भटकेंगे तो कैसे मिले उजास..



समय
गलत काम में गुस्सा आता, धीरज क्यों नहीं धरता मैं,
उम्मीदें पालूं दूजों से, खुद करने से डरता मैं,


आलस बहुत बुरी चीज है, किसको कैसे बतलाऊँ,
आलस की नदिया में बैठा, अपना गागर भरता मैं,


समय की कीमत कब समझूंगा, समय निकल जाएगा तब,
समय सफलता कैसे देगा, कोशिशें ना करता मैं,


सब कुछ जान लिया है मैंने, कुछ भी नही रहा बाकी,
मुझको कौन सिखा सकता है, अहंकार में मरता मैं,


समय नहीं कुछ कहने का अब, खुद कर लूँ तो अच्छा है,
सीख शरीरां उपजे सारी , बाहर क्यों विचरता मैं,



उल्टा - पुल्टा
हो गया उल्टा - पुल्टा इक दिन
उड़ गया हाथी पंखों के बिन
धरती से पाताल की ओर
बीच चौराहे घनी भीड़ में
भरी दुपहरी नाचा मोर.

बकरी ने दो दिए थे अंडे
बैठे थे श्मशान में पंडे
गूंगी औरत करती शोर
चूहों की दहाड़ सुनी तो
सिर के बल पर भागे चोर.
मुर्गा बोला म्याऊँ - म्याऊँ
बिल्ली बोली कुकडू कूं
बिना पतंग के उड़ गई डोर
निकले तारे धरती पर तो
छिप गया सूरज हो गई भोर.


सरदी
सरदी आई सरदी आई
ओढ़ें कम्बल और रिजाई
ज्यों - ज्यों सरदी बढ़ती जाए
कपड़ों की हम करें लदाई.


मिलजुल सारे आग तापते
रात - रात भर करें हथाई
भांति - भांति के लड्डू खा कर
सरदी पर हम करें चढ़ाई


सूरज निकला धूप सुहाई
सरदी की अब शामत आई
फाल्गुन आया होली आई
सरदी की हम करें विदाई.


अकड़ 
अकड़ -अकड़ कर
क्यों चलते हो
चूहे चिंटूराम ,

ग़र बिल्ली ने
देख लिया तो
करेगी काम तमाम,

चूहा मुक्का तान कर बोला
नहीं डरूंगा दादी
मेरी भी अब हो गई है
इक बिल्ली से शादी. 



चूँचूँ चूहा
चूँचूँ चूहा बोला - मम्मी
मैं भी पतंग उडाऊँगा
लोहे सी मजबूत डोर से
मैं भी पेच लडाऊँगा


मम्मी बोली - तुम बच्चे हो
बात पेच की करते हो
बाहर बिल्ली घूम रही है
क्या उससे नहीं डरते हो ?


चूँचूँ बोला - बिल्ली क्या है
उससे करूंगा "फेस"
मैंने पहन रखी है मम्मी
काँटों वाली ड्रेस. 


मोबाइल
माँ मैं भी मोबाइल लूँगा
अच्छी-अच्छी बात करूँगा.

हर मौके पर काम यह आता
संकट में साथी बन जाता.

होम वर्क पर ध्यान मैं दूंगा
पढ़ने में पीछे न रहूँगा.

मेरी खबर चाहे कभी भी लेना,
एस एम एस झट से कर देना.

स्कूल समय में रखूँगा बंद
सदा रहूँगा मैं पाबन्द.

कहाँ मैं आता कहाँ मैं जाता,
चिंताओं से तुझे मुक्ति दिलाता.

माँ धर तू मेरी बात पे ध्यान,
है मोबाइल अब समय की शान.  



बेटी
मम्मी - पापा
कितने अच्छे ,
मुझको यह ,
दुनिया दिखलाई,
ऐसे कई हैं
मम्मी - पापा
कोख से ही
कर देते विदाई



अब तो जाग
कौन बुझाए खुद के भीतर , रहो जलाते आग,
ऐसे नहीं मिटा पायेगा, कोई आपका दाग.


मन की बातें कभी न करते, भीतर रखते नाग,
कैसे बतियाएं हम तुमसे, करते भागमभाग.


कहे चोर को चोरी कर ले, मालिक को कह जाग,
इज्जत सबकी एक सी होती, रहने दो सिर पाग.


धूम मचाले रंग लगा ले, आया है अब फाग,
बेसुरी बातों को छोड़ दे, गा ले मीठा राग.


मन के अंधियारे को मेट दे, क्यों बन बैठा काग,
कब तक सोये रहोगे साथी, उठ जा अब तो जाग.
जोकर
इसके बिना है सर्कस सूना,
दर्शक एक ना आए,
उल्टे - सीधे पहन के कपड़े,
करतब यह दिखलाए.


गिरते गिरते बच जाता यह
पल पल में इतराए,
गुमसुम कभी न देखा इसको,
हर पल यह मुस्काए.


भीतर ही भीतर खुद रोता,
जग को खूब हंसाए,
इसको कौन हँसाएगा, यह
मन ही मन ललचाए


मन मर्जी का मालिक है ये,
"जो कर" यह कहलाए,
बच्चा - बूढ़ा, नर और नारी,
सबके मन को भाए..


 

नानी

नानी तू है कैसी नानी
नहीं सुनाती नई कहानी
नानी बोली प्यारे नाती
नई कहानी मुझे न आती
मेरे पास तो एक कहानी
एक था राजा एक थी रानी
नई बातें कहां से लाऊं
तेरा मन कैसे बहलाऊं
तुम जानो कम्प्यूटर बानी
तुम हो ज्ञानी के भी ज्ञानी
मैं तो हूं बस तेरी नानी
तुम्हीं सुनाओ कोई कहानी।।



चिड़िया होता
पापा गर मैं चिड़िया होता
बिन पे‍ड़ी छत पर चढ जाता
मेरा बस्ता मुझसे भारी
उससे पीछा भी छुड़ जाता
होमवर्क ना करना पड़ता
जिससे मैं कितना थक जाता
धुआं, धूल और बस के धक्के
पापा फिर मैं कभी न खाता
कोई मुझको पकड़ न पाता
दूर कहीं पर मैं उड़ जाता।।



होली है
रंगों का त्यौहार जब आए,
टाबर टोली के मन भाए,
काला, पीला, लाल गुलाबी,
रंग आपस में खूब रचाए.


मित्र मण्डली भर पिचकारी,
कपड़े रंग से तर कर जाए,
मिलजुल खेलें जीजा साली,
गाल मले गुलाल लगाए.


भाभी देवर हंस हंस खेले,
सारे दुःख क्षण में उड़ जाए,
शक्लें सबकी एकसी लगती,
कौनसा सा कौन पहचान न पाए,
बुरा न माने इस दिन कोई,
सारे ही रंग में रच जाए,


 

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