प्रेम और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं....मोहनदास कर्मचंद गांधी...........मुझे मित्रता की परिभाषा व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसा मित्र पाया है जो मेरी ख़ामोशी को समझता है

Monday, October 23, 2017

बाल मनोविज्ञान के आइने में‘शंखेसर रा सींग’

बाल मनोविज्ञान के आइने में‘शंखेसर रा सींग’

बाल मानस का चतुर्मुखी विकास करना ही बाल साहित्य के सृजन का उद्देश्य है ताकि नई पीढ़ी को एक स्वर्णिम भविष्य दिया जा सके। बालक देश के भावी कर्णधार हैं। उनके लिए ऐसा साहित्य अपेक्षित है जो बालकों को सही अर्थों में इन्सान बनने के लिए प्रेरित करे। उनमें दया, क्षमा, त्याग, प्रेम एवं संवेदना आदि गुणों को उत्पन्न करे, उनके अंदर छिपी हुई प्रतिभा को विकसित कर पाये एवं उनमें आपसी वैमनस्य दूर करके परस्पर सद्भाव रखने का महामंत्र फूंके।

प्रस्तुत समीक्ष्य कृति ‘शंखेसर रा सींग’ श्री दीनदयाल शर्मा का सद्य प्रकाशित बाल नाटक है। इसमें घमण्ड जैसे विकार को लेखक ने अपने नाटक का विषय बनाया है। इस नाटक का कथ्य इस प्रकार है।

एक जंगल में पशु-पक्षी न्यायपूर्ण व्यवस्था के बीच अत्यन्त शांति और प्रेम के साथ परस्पर हिलमिल कर रहते हैं। कुछ समय पश्चात् वहां अन्य किसी स्थान से एक गदहा आकर रहने लगता है जो अत्यन्त दुष्ट प्रवृत्ति का है। उसके सिर पर (घमण्ड रूपी) दो नुकीले-तीखे सींग हैं जिनसे वह बिना वजह ही जंगल के अन्य जानवरों को डराता, धमकाता और घायल करता रहता है। परस्पर स्नेहपूर्वक रहने वाले शान्त स्वभाव के धैर्यवान् पशु काफी समय तक उसकी घमण्डी प्रवृत्ति और दुष्टता को सहन करते रहते हैं किन्तु जब दुखी हो जाते हैं तो वह अपने जंगल के राजा बघेलसिंह के पास जाकर उसकी शिकायत करते हैं। राजा बघेलसिंह शंखेसर को प्यार से समझाने का प्रयास करता है पर उसके अडिय़ल और घमण्डी रुख को देखकर अंतत: उसे उसके दोनों सींगों को उखड़वाकर उसे वहां से भगा देना पड़ता है।

इस छोटी सी कथा के माध्यम से कुशल लेखक ने बाल मनोविज्ञान का भरपूर प्रयोग करते हुए बालकों को स्वयं घमण्डी न बनने की शिक्षा दी है। दूसरे, आज हमारे समाज में ऐसे घमण्डी तत्वों की भरमार है जो आपसी सद्भाव और भाईचारे को अपने गर्व और अहंकार से हर समय चोट पहुंचाते रहते हैं, ऐसे तत्वों को प्रेम से समझाने-बुझाने पर यदि व्यवहार में बदलाव न आये तो उन्हें दण्ड दिया जाना आवश्यक है, किन्तु जान से मारना इसका समाधान नहीं है।

लेखक ने नाटक अत्यन्त सहज, सरल, रोजाना बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा में लिखा है। नाटक इतना रोचक है कि बच्चे इस नाटक को मंच पर आसानी से खेल सकते हैं। बच्चे इसमें अभिनय करने, इसे देखने एवं पढऩे सभी में समान रूप से हर्षित होंगे। नाटक के सात दृश्य हैं। सातों में लेखक ने पात्रों के मनोभावों दर्शाने के लिए समयानुकूल उचित टिप्पणी (ब्रेकेट) में प्रदान की है ताकि अभिनय में आसानी रहे।

पुस्तक का आवरण विषय के मंतव्य को समझाने-दर्शाने में पूर्ण रूप से सक्षम है। पुस्तक का कागज, मुद्रण एवं साज-सज्जा सभी स्तरीय है। मैं इतने मनोरंजक बाल नाटक लिखने के लिए दीनदयाल शर्मा को हार्दिक बधाई देती हूं।

-सरला अग्रवाल,
आस्था, 5वीं 20 तलवण्डी,
कोटा-324005, राजस्थान

पुस्तक : शंखेसर रा सींग, लेखक : श्री दीनदयाल शर्मा, प्रकाशक : राजस्थान बाल कल्याण परिषद्, 10/22, आर.एच.बी., हनुमानगढ़ संगम (राज.), पृष्ठ : 40, मूल्य : 20 रुपये। बच्चों की प्रिय पत्रिका बालवाणी, अप्रैल, 1998, पेज संख्या-47 पर

Sunday, October 22, 2017

पापा का बाल मन, उनकी उम्र का मोहताज नहीं

पापा का बाल मन, उनकी उम्र का मोहताज नहीं

अपने सौभाग्य को केन्द्र में रखकर पापा के बारे में जब भी सोचता हूं, तो लाख परेशानी और चिंताओं के बीच भी चेहरे पर सुकून भरी मुस्कान आ जाती है। ये मुस्कान पापा की उसी छवि को प्रस्तुत करती है, जो मैंने होश सम्भालते ही उनके लिए महसूस की है। भावुकता, अनुशासन, समयनिष्ठ, स्पष्टवादिता और बालमन की जीती-जागती तस्वीर हैं पापा। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वे मेरे पिता हैं बल्कि ऐसा मैंने खुद महसूस किया है और प्रयासरत हूं कि मैं भी इनकी ये सभी विशेषताएं अंगीकार करूं। इन विशेषताओं में सर्वोपरि है उनका बाल मन। जो उनकी उम्र का मोहताज नहीं है। बच्चों को देखकर ऐसे खुश हो जाते हैं, जैसे सवेरे सवेरे बगिया में खिलते फूलों को देखकर माली।

इसके अलावा पापा की स्पष्टवादिता से भी मैं बहुत प्रभावित होता हूं। जो भी इनके दिल में होता है उसे स्पष्ट रूप से कह देते हैं। पापा हमेशा कहते हैं, बेटा मुझसे ये जोड़ घटाओ नहीं होता, जो बात है वह कह देता हूं। पापा की अनेक खूबसूरत कविताओं में से एक कविता इसी भाव को दर्शाती है कि- ‘कोयला जैसा बाहर से/ वैसा ही भीतर/ फिर भी/ दूसरों के लिए जलता है/ लेकिन आदमी का आजकल/ पता ही नहीं चलता है।’’

हम जानते हैं कि हमें जीने के लिए ऑक्सीजन चाहिए। इसके बिना हम जिंदा नहीं रह पाएंगे। लेकिन बचपन से मैंने महसूस किया है कि ऑक्सीजन के अलावा एक और चीज भी है जो पापा के लिए बहुत जरूरी है। और वो है- साहित्य। साहित्य जगत में बाल साहित्य विधा में देशभर में पापा ने अपनी छाप छोड़ी है। लेकिन मेरी इच्छा है कि उनकी ये छाप विदेश तक भी जाए।

घर में रखी हजारों किताबों को देखकर मैं बचपन में अक्सर पापा से कह देता था कि ‘पापा इतनी किताबों का हम क्या करेंगे?’ तब पापा का बड़ा सुंदर जवाब आता कि ‘बेटा, पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं, जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ती।’

मुझे आज भी याद है जब मैं लगभग 5-6 साल का था। पापा जगह-जगह पुस्तक प्रदर्शनी लगाया करते। प्रदर्शनी के लिए रखी ढेर सारी किताबों में से एक-आध किताब मैं भी उठाकर मेज पर रखवाता, ‘कम कीमत में कीमती किताबें’ स्लोगन वाले बैनर दीवारों पर सेलो टेप लगवाकर चिपकाने में सहायता करते हुए उनके इस अद्भुत मिशन में अपनी हाजिरी देने की कोशिश करता। वो बात अलग है कि मेरा ज्यादा ध्यान बगल वाली ‘बर्फ गोले’ की दुकान पर होता था।

सैकड़ों साहित्यिक सम्मेलनों में पापा मुझे अपने साथ ले जाते। आज भी ये अवसर मैं नहीं छोड़ता। उनके अनुभवों को मैंने भी महसूस किया है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि अपने बच्चे को हरदम साथ रखने वाला पिता स्वयं अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अनुशासित रहता है और यही अनुशासन, बच्चे के भीतर संस्कारों को जन्म देता है।

पापा जो कुछ भी लिखते हैं, पहले उसे पढक़र घर में हम सभी को सुनाते हैं और उनकी हर कृति भीतर तक छू जाती है। ये सिलसिला शुरू से लेकर अब तक जारी है। साहित्य के इस माहौल ने बहुत कुछ सिखाया है। आज ये लिख पाना भी मेरे लिए इसीलिए संभव हुआ है, क्योंकि समय-समय पर मुझे साहित्यिक खुराक मिलती रही है।

पापा जो कुछ भी लिखते हैं या लिखा हुआ पढक़र सुनाते हैं, तो वे उसे भीतर तक महसूस भी करते हैं। कविता पाठ करते समय मंच पर कई बार इनका दिल भर आता है। गला भर जाता है। आंखें नम हो जाती हैं। जो कि इनकी भावुकता की पराकाष्ठा कह सकता हूं।

इसके अलावा और भी कई क्षण ऐसे हैं जब हम दोनों ही आपस में गले लगकर भावुक हो जाते हैं। सन् 2012 में भी ऐसा ही एक पल तब आया जब किसी राजकीय कार्य से पापा का जयपुर जाना हुआ और मैं भी बीकानेर अपने कॉलेज से सीधा जयपुर पहुंच गया, आकाशवाणी में कंपीयर के रूप में युववाणी प्रोग्राम के लिए। शिक्षक भवन में पापा से मिला। बातें करते-करते रात वहीं गुजरी। सवेरे-सवेरे जब चाय की चुस्की लेने पापा शिक्षक भवन से बाहर गए, तो अखबार की ताजा हेडलाइन देखकर दौड़े चले आए। कमरे का दरवाजा खोला और नींद से मुझे जगाते हुए उल्लास के साथ बोले कि ‘बेटा बधाई हो, मुझे राजस्थानी भाषा में साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से पुरस्कार देने की घोषणा हुई है।’ सचमुच ये वो पल था, जिसका मैंने काफी समय से इंतजार किया था। हम दोनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। दोनों की आंखें नम थी।

अपने मित्रों, रिश्तेदारों को जन्मदिवस या उनके जीवन के खास अवसरों पर सर्वप्रथमबधाई देने से भी पापा कभी नहीं चूकते। फिर चाहे उस बधाई का माध्यम टेलीफोन हो या फेसबुक।

पापा हमेशा से मेरे दोस्त बनकर रहे हैं। इसीलिए मुझे कभी बाहर दोस्त तलाशने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। उन्होंने हमेशा मुझे हौसला दिया है। मेरी हर इच्छा को इस सीख के साथ पूरा किया है, कि कुछ भी पाने के लिए मेहनत जरूरी है और पापा का एक खास डायलॉग जो अक्सर मुझसे कहते हैं, ‘बेटा जो मेरा है, वो तेरा है और जो तेरा है वो भी तेरा है। फिर मैं हंसकर उनसे कहता हूं, ‘तो पापा, फिर आपका क्या है?’’ पापा का जवाब होता है- ‘तुम ’

साहित्य के साथ-साथ पापा ने परिवार की हर जरूरत का भी बखूबी ख्याल रखा है। अपनी हर जिम्मेदारी को निभाया है। पापा ने मुझे कई दिन पहले अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ पंक्तियां लिखने को कहा था। असंख्य संस्मरण हैं लिखने को, लेकिन शब्द सीमा में बंधा होने के कारण मुझे यहीं विराम देना पड़ रहा है।

अंत में यही कि, पापा का मेरे और मेरा उनके प्रति जो स्नेह है, वो बयां कर पाना मेरे लिए नाममुकिन है। गर्व है मुझे मेरेे नसीब पर जिसमें ऐसे पिता मिले। इन पंक्तियों के साथ बस इतना लिखूंगा कि ये भावनाएं व्यक्त करने के विचार मात्र से ही मैं भीतर तक भर गया हूं। ‘तुम हो, तो मैं हूं............. तुम नहीं, तो कुछ भी नहीं।’

- दुष्यंत जोशी
पुत्र दीनदयाल शर्मा
मोबाइल: 9509471504

मेरे पिता भी आप, मेरी मां भी आप, मेरे दोस्त भी आप, मेरे गुरु भी आप

मेरे पिता भी आप, मेरी मां भी आप,
मेरे दोस्त भी आप, मेरे गुरु भी आप

शुरूआत कैसे करूं...समझ नहीं आता। पापा के बारे में जितना भी लिखूं उतना कम है। शुरू से ही मैं पापा की और पापा मेरे चहेते रहे हैं। कहते हैं ना बेटियां अपने पापा की लाडली होती हैं और मैं पापा की सबसे लाडली रही हूं। हर बेटी चाहती है कि वो अपनी मां जैसी बने लेकिन मैं पापा जैसी बनना चाहती हूं। और जब लोग कहते है कि तूं बिल्कुल अपने पापा जैसी है तो सच कहूं वो पल मेरे लिए बहुत ही खास होता है।

पापा ने न सिर्फ बोलना, चलना, पढऩा लिखना सिखाया है बल्कि अपनी खूबियां भी हमें भेंट के रूप में दी हैं। आज जो कुछ भी लिख पा रही हूं, सब पापा की ही देन है। मेरी हैंड राइटिंग, तर्क शक्ति, नये विचार से सब पापा को देखकर उन चीजों को महसूस करके सीखा है। मम्मी से ज्यादा जुड़ाव मेरा पापा के साथ रहा है। इसी कारण अपनी हर बात, हर जरूरत, हर परेशानी में मैंने पापा से बांटी है और पापा ने हमेशा मेरा साथ दिया है।

वर्ष 2006 में दादा जी के देहावसान के बाद जब एक दिन पापा अकेले कमरे में बैठे थे तब बातों ही बातों में पापा ने पूछा कि बेटा तुम सबसे ज्यादा प्यार किसे करती हो? सुनते ही झट से बोल पड़ी-पापा, दादाजी से करती थी, लेकिन उनके बाद आपसे करती हंू। पापा ने फिर पूछा-बेटा, मुझसे कितना प्यार करती हो? तो मैंने अपने हाथों फैलाया, जितना दूर तक ले जा सकती थी, कहा-इतना प्यार करती हूं मैं आपसे। यह देखकर पापा ने मुझे बांहों में भर लिया।

पापा जब अपने साहित्य सम्मेलन के लिए कहीं बाहर चले जाते हैं तो उनके बिना घर खाली-खाली सा लगता है। मानो दिन कटना मुश्किल हो जाता है। प्यार के साथ डाँट फटकार भी जरूरी है, जो समय-समय पर मुझे मिलती रहती है। जो बहुत अच्छी लगती है। पापा-बेटी की नोकझोंक में हम रूठ भी जाएं तो दोस्त की तरह एक दूसरे को मना भी लेते हैं।

पापा ने साहित्य को हमेशा अपना हिस्सा माना है। मानो साहित्य उनके शरीर का एक अंग ही हो। पापा हमारे साथ कहीं घूमने जाएं तो साहित्य हमेशा उनके साथ ही रहता है। बातों-बातों में ही नई कविता बना लेना। कुछ नया विचार आते ही उस पर कहानी लिख देना उनकी आदत में शामिल है। यात्रा के दौरान उनकी कविताओं से रास्ते में चार चाँद लग जाते हैं।

जब मेरी किसी सहेली का जन्मदिन आता है तो पापा से पूछती हूं कि क्या तोहफा दूं ? तो पापा की हमेशा यही राय होती है कि कोई किताब दे दो। पहले तो मैं यह सुनकर मुँह बना लेती कि पापा ने यह क्या कह दिया, लेकिन जैसे-जैसे समझ आने लगी तब से किताबों के महत्त्व की जानकारी हुई।

मेरी लेखन में रुचि होने का श्रेय सिर्फ पापा को ही जाता है। मेरी लिखी कहानियां पापा के मार्गदर्शन के बिना अधूरी सी लगती है। पापा के बहुत से गुण हमें उनसे आंशिक रूप से मिले हैं। उन्होंने हम तीनों बच्चों को हमेशा प्रेरित किया है और हर काम में हमारा साथ दिया है। पापा मेरे लिए क्या मायने रखते हैं बता पाना मेरे लिए उतना ही मुश्किल है जितना कि बाहुबली-2 आने से पहले बता पाना कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा था। लेकिन इन छोटी-छोटी चार पंक्तियों में मैं बताना चाहूंगी कि- मेरे पिता भी आप
मेरी मां भी आप
मेरे दोस्त भी आप
मेरे गुरु भी आप।

पापा एक अच्छे साहित्यकार होने के साथ-साथ अपने जीवन में एक अच्छे व्यक्ति भी हैं। बच्चों के प्रति प्रेम, युवा पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कोशिश करते हैं। बड़े होने के बावजूद भी पापा ने कभी अपने आप पर अभिमान नहीं किया और जो कुछ बच्चे उन्हें बताते हैं वे बहुत ही धीरज और प्रेम से सुनते हैं और उसे अपनाते भी हैं यानी बच्चों की हर बात को वे पूरी तवज्जो देते हैं।

पापा का ये मानना है कि छोटा हो या बड़ा सब के पास अलग-अलग तरह का ज्ञान है और हर किसी से कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है।
पापा की कही एक - एक बात हमेशा याद रहती है कि उम्र से बड़े होना, दिल से नहीं। अपने दिल में जो छिपा बचपन है उसे कभी खत्म नहीं होने देना। शायद यही वजह है कि मैं आज भी बर्ताव करती हूं और हर छोटी से छोटी बातों को पापा की कही-समझाई बातें याद आ जाती हैं। मेरे पापा मेरी जिन्दगी में मेरे लिए मेरे आदर्श हैं और मैं उनकी परछाई बनने की करूंगी।

-मानसी शर्मा
प्रथम वर्ष, कला वर्ग,
रेयान कॉलेज, हनुमानगढ़
पुत्री श्री दीनदयाल शर्मा

रंग रे दीनदयाल

रंग रे दीनदयाल

गढ हनुमाना में बसै, चावौ दीनदयाल।
भटनेरी इतिहास भट्ट, लाडक मां रौ लाल।।

'टाबर टोळी' सुप्रसिद्ध काढै छै अखबार।
सुधरै पीढी सांतरी, थळकण मुळकै थार।।

साहित री ले सीरणी, शर्मा दीनदयाल।
भावी पीढी रौ भविस, दमकै सूरज लाल।।

गीत, कविता अर कथा, टाबर मुळकण देत।
शर्मा दीनदयाल सा, हिंवड़ै राखै हेत।।

'टाबर टोळी' रंग में, आखर प्रीत अपार।
शर्मा दीनदयाल नित, सींचै कण-कण थार।।

कारटून अर बाळकथा, विध-विध रा समंचार।
'टाबर टोळी' नित नवी, रंग भटनेरी थार।।

म्हारौ व्हालौ मिंत औ रंग रे दीनदयाल।
साजौ राखै सुरसती, मां जगदम्ब रुखाळ।।

-डॉ.आईदानसिंह भाटी,
8-बी / 47 तिरुपतिनगर,
नांदड़ी, जोधपुर, राज.

बाल हितकारी बाल मन को प्रणाम है

बाल हितकारी बाल मन को प्रणाम है

साहित्य साधक दीनदयाल का बाल मन
सूर मन मन्दिर सा बालकष्ण धाम है।

बालकों के लिए जिएं, बालकों के लिए लिखें
बालकों की सोच वाला बालकों का काम है।

बालकों की प्रेरणा में श्वास प्रतिश्वास बोले
आखर-आखर जपे जैसे बाल राम है।

बाल संवेदन साध, दीन के दयाल कहें
बाल हितकारी बाल मन को प्रणाम है।।

राजस्थानी हिन्दी बाल साहित्य के पुरोधा हैं
कहानी कविता मंच नाटकों का काम है।

बालक विकास हित, सृजन की ऊंचाई पे
अनेक अनेक मिले ऊंचे सनमान है।

साधते चलो रे भाई, बाल मन जीत जीत
दीना भाई मित्र बाल साधना का नाम है।

बालकों के शब्द लिए, बालकों की भाषा बोली
बाल हितकारी बाल मन को प्रणाम है।।

शिशु गीत, पहेलियां, नाटक औ कहानियां
बाल मनोविज्ञान का श्रेष्ठतम काम है।

मानवीय मूल्य बाल मन में भरे हैं खूब
खेल-खेल सीख दे के गाए सरे आम है।

जीवन की जड़ मजबूत करी साहित्य में
बालकों का हित किया, ललित ललाम है।

वाह रे दयाल दीन मित्र अभिनन्दन है
बाल हितकारी बाल मन को प्रणाम है।।

-ज्योतिपुंज,
वैशाली अपार्टमेण्ट, सेक्टर-4, उदयपुर, राज.

बच्चों के प्रिय दीनदयाल

बच्चों के प्रिय दीनदयाल

दुआ जिओ तुम लाखों साल
बच्चों के प्रिय दीनदयाल।

चाचा-बापू जैसे प्यारे
बच्चों की आँखों के तारे
रचना कौशल अजब आपका
बच्चों में बन जाते बाल।

पत्रकार बन नाम कमाया
शिक्षक बन बच्चों पर छाया
राजस्थानी साहित्य रचकर
हिन्दी में भी किया कमाल।

‘टाबर टोल़ी’ पत्र निकालते
मानद संपादक कहलाते
मेलभाव सबसे रखते हैं
भारत माता के ये लाल।

मृदुवाणी हँसमुख इन्सान
स्पष्टवादिता है पहचान
मिलकर सब कायल हैं इनके
मैं हूँ बिना मिले बेहाल।।

-शिवकुमार यादव,
ग्राम-नेरा कृपालपुर, पोस्ट-गौरीकरन,
तह. भोगनीपुर, जिला: कानपुर (देहात)


सबको खूब हँसाते : दीनदयाल

सबको खूब हँसाते : दीनदयाल

दीनदयाल प्रसिद्ध हैं बहुत, लिखा बाल साहित्य।
किताबें कई लिखी हैं, अब भी लिखते नित्य।।

कवि सम्मेलन में जाते, सबको खूब हँसाते।
कविताएं सुनकर श्रोता, लोटपोट हो जाते।।

‘डुक’ के हास्य से होता, सम्मोहित हर श्रोता।
नाटकों का अभिनय भी, विद्यालयों में होता।।

बालक ‘जगिया’ पात्र तुम्हारा, है भोला पर प्यारा।
आम घरों के जीवन का, इसमें है चित्रण सारा।।

राष्ट्रपति के सम्मुख लेकर, ‘ड्रीम्स’ गए थे अपने।
भावी भारत के हैं इसमें, बाल मनों के सपने।।

पुरस्कार-सम्मान मिले, भारत के हर कोने से।
समारोह-सम्मेलन शोभित तव शामिल होने से।।

विनय यही ईश्वर से तुम, बस यंू ही लिखते जाओ।
दीर्घायु अरु स्वस्थ रहो, सम्मान बहुत से पाओ।।

‘टाबर टोल़ी’ पाक्षिक इनका बच्चों को अति भाये।
स्तंभ बड़े रोचक हैं जिसके, सबका ज्ञान बढ़ाये।।

-डॉ.विद्यासागर शर्मा,
पूर्व सरस्वती सभा सदस्य, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर। पूर्व कार्य समिति सदस्य, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर।


Saturday, October 21, 2017

शिक्षाविद्-बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा

शिक्षाविद्-बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा

आज मैंने राजस्थानी भाषा की एक ऐसी पुस्तक पढ़ी, जिसे पढक़र दिए तले अँधेरा वाली कहावत याद आ गयी। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थानी भाषा के बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा की पुस्तक ‘बाळपणै री बातां’ की। इस किताब को पढक़र ऐसा लगा कि यदि यही पुस्तक किसी विदेशी विद्वान या किसी हाई प्रोफाइल लेखक की लिखी होती या फिर ये अंग्रेजी में होती तो निश्चित रूप से आज यह दुनिया की एक चर्चित किताब होती।

यह पुस्तक मरिया मोंतेस्सरी Montessori, गिजुभाई वधेका और जापानी शिक्षाविद Tesuko Kuroyanagi (तोतोचान ) और ओशो आदि की विचार धाराओं से कम नहीं। बल्कि हमारे परिवेशगत अनुभवों के कारण ज्यादा उपयोगी है। मुझे खुशी है कि हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी में इतनी शोधपरक और बाल मनोविज्ञान पर आधारित कोई पुस्तक उपलब्ध है जिससे हमारी मान्यता का दावा और भी मजबूत हो सकता है।

इस पुस्तक में लेखक ने अपने बचपन से लेकर एक स्थापित अनुभवी अध्यापक तक और एक जागरूक अभिभावक से लेकर अपने ही बच्चों की बाल सुलभ क्रियाओं तक का मनोवैज्ञानिक ढंग से और वह भी बिना किसी गंभीर शब्दावली/शब्दाडम्बरों के बोझ के संस्मरणात्मक शैली में विश्लेषण किया है। पुस्तक को हालांकि शीर्षकों में बांटा है पर हर शीर्षक अपने आप में पूर्ण है यानी कोई जरूरी नहीं कि एक ही बैठक में आप पूरी किताब पढ़ें।

लेखक ने अध्यापक के कार्य को नए रूप में प्रस्तुत करते हुए उसे ‘सिखाने वाला’ की बजाय ‘सीखने वाला’ बनाने को प्रेरित किया है। एक शीर्षक ‘आपां टाबरां सूं सीखां’ में देखिये -‘पण म्हूं कैवूं कै आपां नै टाबरां कन्नैऊँ सीखणौ चइजै। आपां न ‘टाबरां सूं संस्कारित होवणो चइजै।’ यानी ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें अध्यापक किताबें पढक़र नहीं वरन् बच्चों को पढक़र पढ़ाए।

लेखक ने अपने संस्मरणों में जिन व्यक्तियों को उद्धृत किया है उनमें से मानसी, दुष्यंत, ऋतु तो उनके खुद के ही बच्चे हैं जबकि अन्य (राजेश चड्ढा, मायामृग, राममूर्ति पाण्डर, द्वारकाप्रसाद आदि) या तो अध्यापक हैं या फिर उनके लेखक साथी। यानी घटनाओं का ताना बाना यहीं आस पास का है।

स्कूलों की अमनोवैज्ञानिक, डरावनी और एक तरफा शिक्षा पद्धति के परिणामों को रेखांकित करती है, उनकी एक घटना ‘रेड़ाराम रा दोरा’ और एक ‘गुरज्याँ रो डर’ ‘रोजिना एक काणी’ तो आज भी रोजाना कहीं न कहीं घटती ही रहती है। यह कहानी मुझे इस पुस्तक की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक लगी। इसे पढ़ते हुए मेरी शिक्षक के रूप में शुरूआती दिनों में की हुई गलतियाँ मुझे कंपा सी गयी। और आँखों में आँसू भी आ गए। जो अध्यापक बच्चों की पिटाई करते हैं उनके लिए सबक है ये कहानी। यह कहानी तो हर किसी को पढऩी चाहिए, चाहे वह गुरुजी हो या अभिभावक।

पुस्तक में बच्चों के माध्यम से बाल जगत की निश्छलता, भेदभाव हीनता और समता के भाव को प्रगट किया है साथ ही हिदयात दी है कि उन्हें सयाना बनाने की जिद न करें अभिभावक, क्योंकि उनका सयानापन सच्चा और निश्वार्थ होता है तभी तो मानसी कहती है - ‘‘बै’ इंसान कोनी के’ और ‘लोकेश मेरो भाई कोनी के ?’’

‘सरकारी स्कूल में पढ़ाई’ तो एक कटु सत्य है जो शिक्षकों के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और सरकार के लिए भी। जो कहते हैं कि सरकारी अध्यापक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते।

पुस्तक में गंभीर बातों को भी हास्य के पुट में लपेट कर प्रस्तुत किया है जैसे कि ‘गुरज्याँ रो डर’। भाषा शैली की दृष्टी से भी पुस्तक श्रेष्ठ है। प्रूफ रीडर ने भी बहुत अच्छा कार्य किया। एक भी शब्द आगे नहीं आया, जहां खोट निकाला जा सके। यह शायद ‘अध्यापक छिद्रान्वेषी होते हैं’ का ही परिणाम है कि दीनदयाल जी ने एक भी त्रुटि नहीं होने दी। कार्टूनिस्ट मस्तानसिंह जी के चित्र भी पुस्तक के भावों को बखूबी प्रकट करते हैं। कुल मिलाकर यही कहना है कि यह पुस्तक शिक्षा जगत से जुड़े हर व्यक्ति को पढऩी चाहिए और दाद देनी चाहिए लेखक को कि उन्होंने एक शिक्षाविद् होने का परिचय दिया और राजस्थानी भाषा को नए रूप में समृद्ध किया। जय हिंद-जय राजस्थानी। वाह दीनदयाल जी! थानै बणाया राखै साईं....

रमेश जांगिड़, अध्यापक, गांव : भिरानी, तह. भादरा, जिला : हनुमानगढ़, राज.
दिनांक 28 अप्रैल, 2011, मोबाइल : 094135 36847

पुस्तक : बाळपणै री बातां, लेखक : दीनदयाल शर्मा, विधा : राजस्थानी बाल संस्मरण, प्रथम संस्करण : 2009, पृष्ठ : 112, मूल्य : 200/- सजिल्द, प्रकाशक : टाबर टोल़ी, 10/22 आर.एच. बी. कॉलोनी, हनुमानगढ़ जं., 335512

समीक्षकों की दृष्टि में बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा की कुछ बाल पुस्तकें

समीक्षकों की दृष्टि में बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा की कुछ बाल पुस्तकें
कहानी कहने और सुनने की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। कठिन ज्ञान को कहानी द्वारा सरल व सरस बनाकर सदियों से कहानीकार देते आएं हैं। मगर बाल साहित्य सृजन हमारे रचनाकार बहुत कम करते हैं। प्राय: वे अपनी बात को कहने के लिए कविता या कहानी को माध्यम जो जरूर बनाते हैं मगर उसमें भी प्रौढ़ विचार धारा अपने आप आ जाती है। बाल साहित्य सृजन में आवश्यकता यह होती है कि बड़े से बड़ा लेखक बच्चा बनकर, बच्चों की भाषा में, बच्चों की मानसिकता से जुडक़र उसके लिए रचना कर सके। इसलिए कहा जा सकता है कि बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से ज्यादा समझदारी का कार्य है।

समीक्षय कृति "चन्दर री चतराई" भी लेखक ने बच्चों की मानसिकता को मद्देनजर रखते हुए तैयार की है। यह कृति राजस्थानी भाषा में है। कहानियों में नये प्रतीकों और भावों का समावेश बच्चों की भावना के अनुरूप किया है। इस संकलन में पांच कहानियां हैं। प्रत्येक कहानी अपने आप में अलग है। प्रथम कहानी ‘साचै री जीत’ में लेखक ने एक छोटी-सी बात को कहानी का रूप दिया है जो बच्चों को सच बोलने के लिए प्रेरित करती है। बात सिर्फ इतनी सी है कि झूठा इल्जाम लगाकर एक व्यक्ति को पकड़ा दिया जाता हे कि जयसिंह नामक व्यक्ति ने सजनसिंह की भैंस के ऊपर के जबड़े के सारे दाँत तोड़ दिए। जबकि वास्तविकता यह है कि भैंस के मुँह में ऊपर के दाँत होते ही नहीं हैं। दूसरी कहानी ‘लाखिणो मिनख’ में उल्लेख किया है कि इन्सान कभी गरीब नहीं होता, उसके पास अमूल्य अंग जो हैं। ‘खावणआल़ै रो नांव’ में बीकानेर रियासत के राजा गंगासिंह का जिक्र किया करते हुए कहानी लिखी है। ‘चन्दर री चतराई’ नामक कहानी में चन्दर के तीव्र दिमाग का उल्लेख किया गया है।
-‘शिविरा’ पत्रिका, अंक : माह -सितम्बर, 1993

श्री दीनदयाल शर्मा हनुमानगढ़ संगम में ग्रंथालयाधिकारी हैं। अपनी छोटी सी आयु में आपने कई व्यंग्य पुस्तकें, नाटक-नाटिकाएं और बच्चों के लिए पुस्तकें लिखी हैं। यह ‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ पुस्तक बड़ी सरल भाषा में, लोक कथा की शैली में लोमड़ी, मोर, कोयल, कौवा को आधार बनाकर सात कहानियों का संग्रह है, जो सुचित्रित है। छोटी आयु के बच्चों को ये बहुत रुचेंगी। इसमें चमत्कार (सस्पैंस) भी है और बाल मनोविज्ञान का भी उचित ध्यान रखा गया है। शीर्षक कहानी ‘चिंटू-पिंटू की सूझ’, ‘कौवा काला क्यों?’, ‘साधु का शाप’ बड़ी अच्छी कहानियां हैं। इस विधा में शर्मा जी को और लिखना चाहिए। मेरी शुभकामनाएं।
-डॉ.प्रभाकर माचवे,
‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ के द्वितीय संस्करण-1989 में प्रकाशित ‘माचवे जी की कलम से’

दीनदयाल शर्मा ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने बाल नाटक फैसला का प्रकाशन करवाया है। साफ-सुथरा, बिना किसी अशुद्धि के मोटे-मोटे अक्षरों में छपा यह नाटक बच्चों के लिए मजेदार है।
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित

फैसला नाटक तीन पात्रों की मुख्य भूमिका द्वारा लेखक दीनदयाल शर्मा ने जंगल के समाज में भी तोड़-फोड़ का वातावरण उपस्थित कर वर्तमान समाज की दशा को कुरेदने का अच्छा प्रयास किया है। जहां रक्षक ही भक्षक हो जाएं, वहां व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन ही कारगर साबित हो सकता है।
बालकों के मन में गहरे बैठकर अच्छा संदेश पहुंचाने में लेखक का प्रयास सुन्दर है। पुस्तक छ: रुपये मूल्य में नाटक के रूप में अच्छी मानव अभिव्यक्ति है।
-बाल भारती, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1988)

दीनदयाल शर्मा ‘दिनेश्वर’ की लिखी पुस्तक ‘बड़ों के बचपन की कहानियां’ मोटे-मोटे अक्षरों में साफ-साफ मुद्रित है। इसमें संकलित नौ महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग बच्चों के लिए नि:संदेह प्रेरणादायी रहेंगे। उनकी प्रस्तुति बड़ी सहज, सरल और रोचक भाषा में की गई है।
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित

‘तूं कांईं बणसी’ बाल एकांकी राजस्थानी भाषा में है। एक अध्यापक गांव में बच्चों को पढ़ाने आता है। बच्चों से परिचय प्राप्त करने के बाद पूछता है कि कौन-क्या बनेगा? सभी कुछ न कुछ बताते हैं। वह उन्हें समझाता है कि जो करना, लगन से करना। एकांकी पाठक को बांधे रखता है। इसे रंगमंच पर आसानी से खेला जा सकता है।
-नंदन, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1999)

‘पापा झूठ नहीं बोलते’ दीनदयाल शर्मा की छ: बालोपयोगी कहानियों का ऐसा अनूठा संकलन है, जिसकी कहानियां विद्यालय और घर-परिवार के परिवेश से जुड़ी हुई है। इन कहानियों में अनोखी रोचकता, सहज आकर्षण और पाठक को बांधे रखने की अद्भुत मिठास है। सरल भाषा में सुन्दर रेखाचित्र सहित बड़े अक्षरों में मुद्रित इस कृति का बाल जगत में गर्मजोशी से स्वागत होगा, ऐसी अपेक्षा है।
-जगदीशचन्द्र शर्मा (समीक्षा: दैनिक तेज, हनुमानगढ़, दिनांक 7 अप्रैल, 1998 के अंक में प्रकाशित तथा दैनिक प्रताप केसरी, श्रीगंगानगर के 8 मई 1998 के अंक में प्रकाशित)

-समीक्षाएं संकलनकर्ता
श्रीमती कमलेश शर्मा, संपादक, टाबर टोल़ी, हनुमानगढ़ जं., राजस्थान

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