श्री दीनदयाल शर्मा के रेडियो नाटक का प्रत्येक संवाद प्रामाणिक सत्य की तरह लगता है : वरिष्ठ उदघोषक एवं शायर श्री राजेश चडढा द्वारा पुस्तक में लिखी भूमिका
हिन्दी नाटकों का मूल संस्कृत से ही है। संस्कृत में ही विश्व की सबसे प्राचीन नाट्य परम्परा मिलती है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। नाटक एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है, परन्तु रेडियो ने श्रव्य माध्यम में ही सीमित रहते हुए नाटकों की एक नई शैली का विकास किया। नाटक के कथ्य को शब्दों, ध्वनियों और संवाद-प्रस्तुति के माध्यम से सम्प्रेषित करने के मामले में मंच नाटकों की तुलना में रेडियो नाटक कहीं अधिक सशक्त सिद्ध हुआ है। स्वतन्त्रता के बाद जितनी अधिक संख्या में रेडियो के लिए विभिन्न भाषाओं में मौलिक नाटक लिखे गए, उतने मंच के लिए नहीं लिखे गए।
रेडियो नाटकों का विकास राष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ और क्षेत्रीय स्तर पर भी। रेडियो नाटक में मंच पर कोई घटना नहीं घटती, जिसे देखा जा सके बल्कि संवादों को कुछ इस तरह से लिखा और बोला जाता है कि श्रोताओं को सुनते समय ऐसा लगे कि उनके समक्ष कोई रंगमंच पर नाटक खेला जा रहा है। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आए। रेडियो नाटक के इसी क्राफ्ट में निपुण हैं श्री दीनदयाल शर्मा। वे ऐसे लेखक हैं जो रेडियो के लिए लिखने और विशेष रूप से नाटक लिखने में गर्व का अनुभव करते हैं।
श्रव्य माध्यम की बेहतरीन समझ रखने वाले श्री दीनदयाल शर्मा की भाषाई खूबी संवाद में प्रवाह रखती है। रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं- उनमें एक है अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी ध्वनि प्रभाव । श्री दीनदयाल शर्मा का प्रत्येक नाटक आपको जहाँ चाहे ले जा सकता है- दुनिया के किसी भी कोने में, घर के भीतर, रसोई में या आंगन में, बाजार में, मेले में या एकान्त में, पहाड़ी, झरने के पास या समन्दर के किनारे। श्री शर्मा के नाटक का प्रत्येक संवाद प्रामाणिक सत्य की तरह लगता है। मसलन पात्र उस समय कहां हैं- घर के अन्दर या किसी भीड़ भरे स्थान पर, एक-दूसरे के नजदीक बैठे हैं या कुछ दूरी पर, सिचुएशन रोमांटिक है या तनावपूर्ण। छोटे एवं नाटकीय संभावना से परिपूर्ण संवाद श्री दीनदयाल शर्मा के नाटकों की विशेषता प्रतीत होती है।
आज के भागमभाग के दौर में शब्द पढऩे, कानों से सुनने के कम, आंखों से पढऩे के अधिक हो गए हैं। आज शब्द केवल देखकर महसूस किए जाते हैं। जैसे भाषा बोलने सुनने की न होकर देखने की हो गई हो ! असल में समाज में शोर ही इतना अधिक हो गया है कि हमें अपनी आवाज़ को सुनने के लिए भी अपने कान से कान लगाना पड़ रहा है। कभी अपना लोहा मनवाने वाली साहित्यिक विधा 'रेडियो नाटकÓ आज अपने को ही रेडियो पर सुनने के लिए तरस रही है। ऐसे संकट के दौर में भी श्री दीनदयाल शर्मा अपने नाटकों के माध्यम से समाज को कुछ नया देने की कोशिश में दिखते हैं। इस शोर-शराबे के बीच श्री दीनदयाल शर्मा अपनी बात कहने का साहस दिखाने के साथ-साथ अपनी भाषा और संवेदना दोनों ही स्तरों पर पाठकों तथा श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने में सक्षम दिखते हैं।
'जंग जारी हैÓ नामक इस संग्रह में नौ रेडियो नाटक हैं। ये समय-समय पर रेडियो से प्रसारित होते रहे हैं। इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये नाटक नारी के प्रत्येक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मैं चाहूँगा कि जब आप 'जंग जारी हैÓ पढ़ें तो यह याद रखें कि इस कृति के सभी नाटक श्री दीनदयाल शर्मा ने रंगमंच के लिए नहीं लिखे। ये सभी नाटक ध्वनि नाटक हैं और 'ध्वनिÓ के कैमरे से किसी भी रूप में कम सक्षम नहीं है। मुझे इस बात की खुशी है कि जिन नाटकों को रेडियो हेतु मंैने निर्देशित और प्रस्तुत किया है, वे नाटक अब पुस्तक के रूप में आपके हाथ में हंै।
-राजेश चड्ढ़ा
मोबाइल: 94143 81939
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