प्रेम और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं....मोहनदास कर्मचंद गांधी...........मुझे मित्रता की परिभाषा व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसा मित्र पाया है जो मेरी ख़ामोशी को समझता है

Wednesday, January 5, 2011

किससे पूछूँ, पापा! / दीनदयाल शर्मा


किससे पूछूँ, पापा! 

पापा! मुझे बताओ बात

कैसे बनते हैं दिन-रात,

चंदा तारे दिखें रात को 
सुबह चले जाते चुपचाप।


पापा! पेड़ नहीं चलते हैं
ना ही करते कोई बात
कैसे कट जाते हैं, पापा! 
इनके दिन और इनकी रात।



और ढेर-सी बातें मुझको 
समझ क्यूँ नहीं आती हैं,
ना घर में बतलाता कोई 
ना मैडम बतलाती हैं।



फिर मैं किससे पूछूँ, पापा! 
मुझको बतलाएगा कौन 
डाँट-डपट के कर देते हैं
मुझको, पापा! सारे मौन।

- दीनदयाल शर्मा




3 comments:

  1. ..पर दीनदयाल अंकल जी तो कभी नहीं डाँटते हैं. वो तो ढेर सारी बातें बताते हैं...
    ______________



    'पाखी की दुनिया' में जाड़ा भागे अंडमान से...

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  2. बड़ी प्यारी कविता.....

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