मासूम सवाल
जब भी बाँधता हूँ.
तश्में जूतों के
बेटी मानसी
आ जाती है नज़दीक
कभी दबे पांव
तो कभी भाग कर
पापा, बाज़ार से
क्या लाओगे मेरे लिए.?
तुम बताओ क्या लाऊं
प्रत्त्युत्तर में
उसी से करता हूँ सवाल
और लाड करता हुआ
बांहों में
भर लेता हूँ उसे..
वह कहती -
केला, सेब, चीकू , पपीता, अनार
और काले वाले अंगूर भी..
अनार ज़रूर लाना पापा
भूल मत जाना
में अक्सर भूल जाता हूँ
दुकान बंद थी बेटा
कह कर
काम में व्यस्त हो जाता हूँ
सुनकर वह भी
हो जाती चुप
और चली जाती खेलने बाहर
सखी सहेलियों के संग..
कई बार
सब्जी वाले की दुकान पर
जब भी
रुकता हूँ
मानसी की मांग
बार - बार गूंजती है
कानों में
फिर एक - एक चीज के
भाव पूछता हूँ..
दो एक चीज
तुलवा लेता हूँ
महंगाई की मार से
अनार फिर रह जाता है
अनार नहीं लाये पापा ?
कानों में टकराता है
मासूम सा एक सवाल
दुकान पर था ही नहीं बेटा
सहज ही कह जाता हूँ
अब तो
हिचकता भी नहीं हूँ
आदत जो हो गई है
पर अकेला बैठा
कई बात सोचता हूँ
कि अब
जब भी बाहर जाऊंगा
मानसी के लिए
अनार जरूर लाऊंगा
पर भीतर ही भीतर
मन कचोटता है
अपने आप को
तराजू पर तोलता है
कि सच का हामी
आखिर
झूठ क्यों बोलता है..?
-दीनदयाल शर्मा
11 - 3 - 2005 को एस. आर . सी. जयपुर में लिखी कविता..
शाम : 4 :00 बजे..मेरी डायरी के पन्नों से
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।