शिक्षाविद्-बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा
आज मैंने राजस्थानी भाषा की एक ऐसी पुस्तक पढ़ी, जिसे पढक़र दिए तले अँधेरा वाली कहावत याद आ गयी। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थानी भाषा के बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा की पुस्तक ‘बाळपणै री बातां’ की। इस किताब को पढक़र ऐसा लगा कि यदि यही पुस्तक किसी विदेशी विद्वान या किसी हाई प्रोफाइल लेखक की लिखी होती या फिर ये अंग्रेजी में होती तो निश्चित रूप से आज यह दुनिया की एक चर्चित किताब होती।
यह पुस्तक मरिया मोंतेस्सरी Montessori, गिजुभाई वधेका और जापानी शिक्षाविद Tesuko Kuroyanagi (तोतोचान ) और ओशो आदि की विचार धाराओं से कम नहीं। बल्कि हमारे परिवेशगत अनुभवों के कारण ज्यादा उपयोगी है। मुझे खुशी है कि हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी में इतनी शोधपरक और बाल मनोविज्ञान पर आधारित कोई पुस्तक उपलब्ध है जिससे हमारी मान्यता का दावा और भी मजबूत हो सकता है।
इस पुस्तक में लेखक ने अपने बचपन से लेकर एक स्थापित अनुभवी अध्यापक तक और एक जागरूक अभिभावक से लेकर अपने ही बच्चों की बाल सुलभ क्रियाओं तक का मनोवैज्ञानिक ढंग से और वह भी बिना किसी गंभीर शब्दावली/शब्दाडम्बरों के बोझ के संस्मरणात्मक शैली में विश्लेषण किया है। पुस्तक को हालांकि शीर्षकों में बांटा है पर हर शीर्षक अपने आप में पूर्ण है यानी कोई जरूरी नहीं कि एक ही बैठक में आप पूरी किताब पढ़ें।
लेखक ने अध्यापक के कार्य को नए रूप में प्रस्तुत करते हुए उसे ‘सिखाने वाला’ की बजाय ‘सीखने वाला’ बनाने को प्रेरित किया है। एक शीर्षक ‘आपां टाबरां सूं सीखां’ में देखिये -‘पण म्हूं कैवूं कै आपां नै टाबरां कन्नैऊँ सीखणौ चइजै। आपां न ‘टाबरां सूं संस्कारित होवणो चइजै।’ यानी ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें अध्यापक किताबें पढक़र नहीं वरन् बच्चों को पढक़र पढ़ाए।
लेखक ने अपने संस्मरणों में जिन व्यक्तियों को उद्धृत किया है उनमें से मानसी, दुष्यंत, ऋतु तो उनके खुद के ही बच्चे हैं जबकि अन्य (राजेश चड्ढा, मायामृग, राममूर्ति पाण्डर, द्वारकाप्रसाद आदि) या तो अध्यापक हैं या फिर उनके लेखक साथी। यानी घटनाओं का ताना बाना यहीं आस पास का है।
स्कूलों की अमनोवैज्ञानिक, डरावनी और एक तरफा शिक्षा पद्धति के परिणामों को रेखांकित करती है, उनकी एक घटना ‘रेड़ाराम रा दोरा’ और एक ‘गुरज्याँ रो डर’ ‘रोजिना एक काणी’ तो आज भी रोजाना कहीं न कहीं घटती ही रहती है। यह कहानी मुझे इस पुस्तक की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक लगी। इसे पढ़ते हुए मेरी शिक्षक के रूप में शुरूआती दिनों में की हुई गलतियाँ मुझे कंपा सी गयी। और आँखों में आँसू भी आ गए। जो अध्यापक बच्चों की पिटाई करते हैं उनके लिए सबक है ये कहानी। यह कहानी तो हर किसी को पढऩी चाहिए, चाहे वह गुरुजी हो या अभिभावक।
पुस्तक में बच्चों के माध्यम से बाल जगत की निश्छलता, भेदभाव हीनता और समता के भाव को प्रगट किया है साथ ही हिदयात दी है कि उन्हें सयाना बनाने की जिद न करें अभिभावक, क्योंकि उनका सयानापन सच्चा और निश्वार्थ होता है तभी तो मानसी कहती है - ‘‘बै’ इंसान कोनी के’ और ‘लोकेश मेरो भाई कोनी के ?’’
‘सरकारी स्कूल में पढ़ाई’ तो एक कटु सत्य है जो शिक्षकों के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और सरकार के लिए भी। जो कहते हैं कि सरकारी अध्यापक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते।
पुस्तक में गंभीर बातों को भी हास्य के पुट में लपेट कर प्रस्तुत किया है जैसे कि ‘गुरज्याँ रो डर’। भाषा शैली की दृष्टी से भी पुस्तक श्रेष्ठ है। प्रूफ रीडर ने भी बहुत अच्छा कार्य किया। एक भी शब्द आगे नहीं आया, जहां खोट निकाला जा सके। यह शायद ‘अध्यापक छिद्रान्वेषी होते हैं’ का ही परिणाम है कि दीनदयाल जी ने एक भी त्रुटि नहीं होने दी। कार्टूनिस्ट मस्तानसिंह जी के चित्र भी पुस्तक के भावों को बखूबी प्रकट करते हैं। कुल मिलाकर यही कहना है कि यह पुस्तक शिक्षा जगत से जुड़े हर व्यक्ति को पढऩी चाहिए और दाद देनी चाहिए लेखक को कि उन्होंने एक शिक्षाविद् होने का परिचय दिया और राजस्थानी भाषा को नए रूप में समृद्ध किया। जय हिंद-जय राजस्थानी। वाह दीनदयाल जी! थानै बणाया राखै साईं....
रमेश जांगिड़, अध्यापक, गांव : भिरानी, तह. भादरा, जिला : हनुमानगढ़, राज.
दिनांक 28 अप्रैल, 2011, मोबाइल : 094135 36847
पुस्तक : बाळपणै री बातां, लेखक : दीनदयाल शर्मा, विधा : राजस्थानी बाल संस्मरण, प्रथम संस्करण : 2009, पृष्ठ : 112, मूल्य : 200/- सजिल्द, प्रकाशक : टाबर टोल़ी, 10/22 आर.एच. बी. कॉलोनी, हनुमानगढ़ जं., 335512
आज मैंने राजस्थानी भाषा की एक ऐसी पुस्तक पढ़ी, जिसे पढक़र दिए तले अँधेरा वाली कहावत याद आ गयी। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थानी भाषा के बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा की पुस्तक ‘बाळपणै री बातां’ की। इस किताब को पढक़र ऐसा लगा कि यदि यही पुस्तक किसी विदेशी विद्वान या किसी हाई प्रोफाइल लेखक की लिखी होती या फिर ये अंग्रेजी में होती तो निश्चित रूप से आज यह दुनिया की एक चर्चित किताब होती।
यह पुस्तक मरिया मोंतेस्सरी Montessori, गिजुभाई वधेका और जापानी शिक्षाविद Tesuko Kuroyanagi (तोतोचान ) और ओशो आदि की विचार धाराओं से कम नहीं। बल्कि हमारे परिवेशगत अनुभवों के कारण ज्यादा उपयोगी है। मुझे खुशी है कि हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी में इतनी शोधपरक और बाल मनोविज्ञान पर आधारित कोई पुस्तक उपलब्ध है जिससे हमारी मान्यता का दावा और भी मजबूत हो सकता है।
इस पुस्तक में लेखक ने अपने बचपन से लेकर एक स्थापित अनुभवी अध्यापक तक और एक जागरूक अभिभावक से लेकर अपने ही बच्चों की बाल सुलभ क्रियाओं तक का मनोवैज्ञानिक ढंग से और वह भी बिना किसी गंभीर शब्दावली/शब्दाडम्बरों के बोझ के संस्मरणात्मक शैली में विश्लेषण किया है। पुस्तक को हालांकि शीर्षकों में बांटा है पर हर शीर्षक अपने आप में पूर्ण है यानी कोई जरूरी नहीं कि एक ही बैठक में आप पूरी किताब पढ़ें।
लेखक ने अध्यापक के कार्य को नए रूप में प्रस्तुत करते हुए उसे ‘सिखाने वाला’ की बजाय ‘सीखने वाला’ बनाने को प्रेरित किया है। एक शीर्षक ‘आपां टाबरां सूं सीखां’ में देखिये -‘पण म्हूं कैवूं कै आपां नै टाबरां कन्नैऊँ सीखणौ चइजै। आपां न ‘टाबरां सूं संस्कारित होवणो चइजै।’ यानी ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें अध्यापक किताबें पढक़र नहीं वरन् बच्चों को पढक़र पढ़ाए।
लेखक ने अपने संस्मरणों में जिन व्यक्तियों को उद्धृत किया है उनमें से मानसी, दुष्यंत, ऋतु तो उनके खुद के ही बच्चे हैं जबकि अन्य (राजेश चड्ढा, मायामृग, राममूर्ति पाण्डर, द्वारकाप्रसाद आदि) या तो अध्यापक हैं या फिर उनके लेखक साथी। यानी घटनाओं का ताना बाना यहीं आस पास का है।
स्कूलों की अमनोवैज्ञानिक, डरावनी और एक तरफा शिक्षा पद्धति के परिणामों को रेखांकित करती है, उनकी एक घटना ‘रेड़ाराम रा दोरा’ और एक ‘गुरज्याँ रो डर’ ‘रोजिना एक काणी’ तो आज भी रोजाना कहीं न कहीं घटती ही रहती है। यह कहानी मुझे इस पुस्तक की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक लगी। इसे पढ़ते हुए मेरी शिक्षक के रूप में शुरूआती दिनों में की हुई गलतियाँ मुझे कंपा सी गयी। और आँखों में आँसू भी आ गए। जो अध्यापक बच्चों की पिटाई करते हैं उनके लिए सबक है ये कहानी। यह कहानी तो हर किसी को पढऩी चाहिए, चाहे वह गुरुजी हो या अभिभावक।
पुस्तक में बच्चों के माध्यम से बाल जगत की निश्छलता, भेदभाव हीनता और समता के भाव को प्रगट किया है साथ ही हिदयात दी है कि उन्हें सयाना बनाने की जिद न करें अभिभावक, क्योंकि उनका सयानापन सच्चा और निश्वार्थ होता है तभी तो मानसी कहती है - ‘‘बै’ इंसान कोनी के’ और ‘लोकेश मेरो भाई कोनी के ?’’
‘सरकारी स्कूल में पढ़ाई’ तो एक कटु सत्य है जो शिक्षकों के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और सरकार के लिए भी। जो कहते हैं कि सरकारी अध्यापक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते।
पुस्तक में गंभीर बातों को भी हास्य के पुट में लपेट कर प्रस्तुत किया है जैसे कि ‘गुरज्याँ रो डर’। भाषा शैली की दृष्टी से भी पुस्तक श्रेष्ठ है। प्रूफ रीडर ने भी बहुत अच्छा कार्य किया। एक भी शब्द आगे नहीं आया, जहां खोट निकाला जा सके। यह शायद ‘अध्यापक छिद्रान्वेषी होते हैं’ का ही परिणाम है कि दीनदयाल जी ने एक भी त्रुटि नहीं होने दी। कार्टूनिस्ट मस्तानसिंह जी के चित्र भी पुस्तक के भावों को बखूबी प्रकट करते हैं। कुल मिलाकर यही कहना है कि यह पुस्तक शिक्षा जगत से जुड़े हर व्यक्ति को पढऩी चाहिए और दाद देनी चाहिए लेखक को कि उन्होंने एक शिक्षाविद् होने का परिचय दिया और राजस्थानी भाषा को नए रूप में समृद्ध किया। जय हिंद-जय राजस्थानी। वाह दीनदयाल जी! थानै बणाया राखै साईं....
रमेश जांगिड़, अध्यापक, गांव : भिरानी, तह. भादरा, जिला : हनुमानगढ़, राज.
दिनांक 28 अप्रैल, 2011, मोबाइल : 094135 36847
पुस्तक : बाळपणै री बातां, लेखक : दीनदयाल शर्मा, विधा : राजस्थानी बाल संस्मरण, प्रथम संस्करण : 2009, पृष्ठ : 112, मूल्य : 200/- सजिल्द, प्रकाशक : टाबर टोल़ी, 10/22 आर.एच. बी. कॉलोनी, हनुमानगढ़ जं., 335512
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