समीक्षकों की दृष्टि में बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा की कुछ बाल पुस्तकें
कहानी कहने और सुनने की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। कठिन ज्ञान को कहानी द्वारा सरल व सरस बनाकर सदियों से कहानीकार देते आएं हैं। मगर बाल साहित्य सृजन हमारे रचनाकार बहुत कम करते हैं। प्राय: वे अपनी बात को कहने के लिए कविता या कहानी को माध्यम जो जरूर बनाते हैं मगर उसमें भी प्रौढ़ विचार धारा अपने आप आ जाती है। बाल साहित्य सृजन में आवश्यकता यह होती है कि बड़े से बड़ा लेखक बच्चा बनकर, बच्चों की भाषा में, बच्चों की मानसिकता से जुडक़र उसके लिए रचना कर सके। इसलिए कहा जा सकता है कि बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से ज्यादा समझदारी का कार्य है।
समीक्षय कृति "चन्दर री चतराई" भी लेखक ने बच्चों की मानसिकता को मद्देनजर रखते हुए तैयार की है। यह कृति राजस्थानी भाषा में है। कहानियों में नये प्रतीकों और भावों का समावेश बच्चों की भावना के अनुरूप किया है। इस संकलन में पांच कहानियां हैं। प्रत्येक कहानी अपने आप में अलग है। प्रथम कहानी ‘साचै री जीत’ में लेखक ने एक छोटी-सी बात को कहानी का रूप दिया है जो बच्चों को सच बोलने के लिए प्रेरित करती है। बात सिर्फ इतनी सी है कि झूठा इल्जाम लगाकर एक व्यक्ति को पकड़ा दिया जाता हे कि जयसिंह नामक व्यक्ति ने सजनसिंह की भैंस के ऊपर के जबड़े के सारे दाँत तोड़ दिए। जबकि वास्तविकता यह है कि भैंस के मुँह में ऊपर के दाँत होते ही नहीं हैं। दूसरी कहानी ‘लाखिणो मिनख’ में उल्लेख किया है कि इन्सान कभी गरीब नहीं होता, उसके पास अमूल्य अंग जो हैं। ‘खावणआल़ै रो नांव’ में बीकानेर रियासत के राजा गंगासिंह का जिक्र किया करते हुए कहानी लिखी है। ‘चन्दर री चतराई’ नामक कहानी में चन्दर के तीव्र दिमाग का उल्लेख किया गया है।
-‘शिविरा’ पत्रिका, अंक : माह -सितम्बर, 1993
श्री दीनदयाल शर्मा हनुमानगढ़ संगम में ग्रंथालयाधिकारी हैं। अपनी छोटी सी आयु में आपने कई व्यंग्य पुस्तकें, नाटक-नाटिकाएं और बच्चों के लिए पुस्तकें लिखी हैं। यह ‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ पुस्तक बड़ी सरल भाषा में, लोक कथा की शैली में लोमड़ी, मोर, कोयल, कौवा को आधार बनाकर सात कहानियों का संग्रह है, जो सुचित्रित है। छोटी आयु के बच्चों को ये बहुत रुचेंगी। इसमें चमत्कार (सस्पैंस) भी है और बाल मनोविज्ञान का भी उचित ध्यान रखा गया है। शीर्षक कहानी ‘चिंटू-पिंटू की सूझ’, ‘कौवा काला क्यों?’, ‘साधु का शाप’ बड़ी अच्छी कहानियां हैं। इस विधा में शर्मा जी को और लिखना चाहिए। मेरी शुभकामनाएं।
-डॉ.प्रभाकर माचवे,
‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ के द्वितीय संस्करण-1989 में प्रकाशित ‘माचवे जी की कलम से’
-डॉ.प्रभाकर माचवे,
‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ के द्वितीय संस्करण-1989 में प्रकाशित ‘माचवे जी की कलम से’
दीनदयाल शर्मा ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने बाल नाटक फैसला का प्रकाशन करवाया है। साफ-सुथरा, बिना किसी अशुद्धि के मोटे-मोटे अक्षरों में छपा यह नाटक बच्चों के लिए मजेदार है।
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित
फैसला नाटक तीन पात्रों की मुख्य भूमिका द्वारा लेखक दीनदयाल शर्मा ने जंगल के समाज में भी तोड़-फोड़ का वातावरण उपस्थित कर वर्तमान समाज की दशा को कुरेदने का अच्छा प्रयास किया है। जहां रक्षक ही भक्षक हो जाएं, वहां व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन ही कारगर साबित हो सकता है।
बालकों के मन में गहरे बैठकर अच्छा संदेश पहुंचाने में लेखक का प्रयास सुन्दर है। पुस्तक छ: रुपये मूल्य में नाटक के रूप में अच्छी मानव अभिव्यक्ति है।
-बाल भारती, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1988)
बालकों के मन में गहरे बैठकर अच्छा संदेश पहुंचाने में लेखक का प्रयास सुन्दर है। पुस्तक छ: रुपये मूल्य में नाटक के रूप में अच्छी मानव अभिव्यक्ति है।
-बाल भारती, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1988)
दीनदयाल शर्मा ‘दिनेश्वर’ की लिखी पुस्तक ‘बड़ों के बचपन की कहानियां’ मोटे-मोटे अक्षरों में साफ-साफ मुद्रित है। इसमें संकलित नौ महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग बच्चों के लिए नि:संदेह प्रेरणादायी रहेंगे। उनकी प्रस्तुति बड़ी सहज, सरल और रोचक भाषा में की गई है।
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित
-चंपा शर्मा, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 15 मई 1988 के अंक में प्रकाशित
‘तूं कांईं बणसी’ बाल एकांकी राजस्थानी भाषा में है। एक अध्यापक गांव में बच्चों को पढ़ाने आता है। बच्चों से परिचय प्राप्त करने के बाद पूछता है कि कौन-क्या बनेगा? सभी कुछ न कुछ बताते हैं। वह उन्हें समझाता है कि जो करना, लगन से करना। एकांकी पाठक को बांधे रखता है। इसे रंगमंच पर आसानी से खेला जा सकता है।
-नंदन, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1999)
-नंदन, नई दिल्ली (समीक्षा : अंक-अगस्त, 1999)
‘पापा झूठ नहीं बोलते’ दीनदयाल शर्मा की छ: बालोपयोगी कहानियों का ऐसा अनूठा संकलन है, जिसकी कहानियां विद्यालय और घर-परिवार के परिवेश से जुड़ी हुई है। इन कहानियों में अनोखी रोचकता, सहज आकर्षण और पाठक को बांधे रखने की अद्भुत मिठास है। सरल भाषा में सुन्दर रेखाचित्र सहित बड़े अक्षरों में मुद्रित इस कृति का बाल जगत में गर्मजोशी से स्वागत होगा, ऐसी अपेक्षा है।
-जगदीशचन्द्र शर्मा (समीक्षा: दैनिक तेज, हनुमानगढ़, दिनांक 7 अप्रैल, 1998 के अंक में प्रकाशित तथा दैनिक प्रताप केसरी, श्रीगंगानगर के 8 मई 1998 के अंक में प्रकाशित)
-जगदीशचन्द्र शर्मा (समीक्षा: दैनिक तेज, हनुमानगढ़, दिनांक 7 अप्रैल, 1998 के अंक में प्रकाशित तथा दैनिक प्रताप केसरी, श्रीगंगानगर के 8 मई 1998 के अंक में प्रकाशित)
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