मेरे पिता भी आप, मेरी मां भी आप,
मेरे दोस्त भी आप, मेरे गुरु भी आप
शुरूआत कैसे करूं...समझ नहीं आता। पापा के बारे में जितना भी लिखूं उतना कम है। शुरू से ही मैं पापा की और पापा मेरे चहेते रहे हैं। कहते हैं ना बेटियां अपने पापा की लाडली होती हैं और मैं पापा की सबसे लाडली रही हूं। हर बेटी चाहती है कि वो अपनी मां जैसी बने लेकिन मैं पापा जैसी बनना चाहती हूं। और जब लोग कहते है कि तूं बिल्कुल अपने पापा जैसी है तो सच कहूं वो पल मेरे लिए बहुत ही खास होता है।
पापा ने न सिर्फ बोलना, चलना, पढऩा लिखना सिखाया है बल्कि अपनी खूबियां भी हमें भेंट के रूप में दी हैं। आज जो कुछ भी लिख पा रही हूं, सब पापा की ही देन है। मेरी हैंड राइटिंग, तर्क शक्ति, नये विचार से सब पापा को देखकर उन चीजों को महसूस करके सीखा है। मम्मी से ज्यादा जुड़ाव मेरा पापा के साथ रहा है। इसी कारण अपनी हर बात, हर जरूरत, हर परेशानी में मैंने पापा से बांटी है और पापा ने हमेशा मेरा साथ दिया है।
वर्ष 2006 में दादा जी के देहावसान के बाद जब एक दिन पापा अकेले कमरे में बैठे थे तब बातों ही बातों में पापा ने पूछा कि बेटा तुम सबसे ज्यादा प्यार किसे करती हो? सुनते ही झट से बोल पड़ी-पापा, दादाजी से करती थी, लेकिन उनके बाद आपसे करती हंू। पापा ने फिर पूछा-बेटा, मुझसे कितना प्यार करती हो? तो मैंने अपने हाथों फैलाया, जितना दूर तक ले जा सकती थी, कहा-इतना प्यार करती हूं मैं आपसे। यह देखकर पापा ने मुझे बांहों में भर लिया।
पापा जब अपने साहित्य सम्मेलन के लिए कहीं बाहर चले जाते हैं तो उनके बिना घर खाली-खाली सा लगता है। मानो दिन कटना मुश्किल हो जाता है। प्यार के साथ डाँट फटकार भी जरूरी है, जो समय-समय पर मुझे मिलती रहती है। जो बहुत अच्छी लगती है। पापा-बेटी की नोकझोंक में हम रूठ भी जाएं तो दोस्त की तरह एक दूसरे को मना भी लेते हैं।
पापा ने साहित्य को हमेशा अपना हिस्सा माना है। मानो साहित्य उनके शरीर का एक अंग ही हो। पापा हमारे साथ कहीं घूमने जाएं तो साहित्य हमेशा उनके साथ ही रहता है। बातों-बातों में ही नई कविता बना लेना। कुछ नया विचार आते ही उस पर कहानी लिख देना उनकी आदत में शामिल है। यात्रा के दौरान उनकी कविताओं से रास्ते में चार चाँद लग जाते हैं।
जब मेरी किसी सहेली का जन्मदिन आता है तो पापा से पूछती हूं कि क्या तोहफा दूं ? तो पापा की हमेशा यही राय होती है कि कोई किताब दे दो। पहले तो मैं यह सुनकर मुँह बना लेती कि पापा ने यह क्या कह दिया, लेकिन जैसे-जैसे समझ आने लगी तब से किताबों के महत्त्व की जानकारी हुई।
मेरी लेखन में रुचि होने का श्रेय सिर्फ पापा को ही जाता है। मेरी लिखी कहानियां पापा के मार्गदर्शन के बिना अधूरी सी लगती है। पापा के बहुत से गुण हमें उनसे आंशिक रूप से मिले हैं। उन्होंने हम तीनों बच्चों को हमेशा प्रेरित किया है और हर काम में हमारा साथ दिया है। पापा मेरे लिए क्या मायने रखते हैं बता पाना मेरे लिए उतना ही मुश्किल है जितना कि बाहुबली-2 आने से पहले बता पाना कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा था। लेकिन इन छोटी-छोटी चार पंक्तियों में मैं बताना चाहूंगी कि- मेरे पिता भी आप
मेरी मां भी आप
मेरे दोस्त भी आप
मेरे गुरु भी आप।
पापा एक अच्छे साहित्यकार होने के साथ-साथ अपने जीवन में एक अच्छे व्यक्ति भी हैं। बच्चों के प्रति प्रेम, युवा पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कोशिश करते हैं। बड़े होने के बावजूद भी पापा ने कभी अपने आप पर अभिमान नहीं किया और जो कुछ बच्चे उन्हें बताते हैं वे बहुत ही धीरज और प्रेम से सुनते हैं और उसे अपनाते भी हैं यानी बच्चों की हर बात को वे पूरी तवज्जो देते हैं।
पापा का ये मानना है कि छोटा हो या बड़ा सब के पास अलग-अलग तरह का ज्ञान है और हर किसी से कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है।
पापा की कही एक - एक बात हमेशा याद रहती है कि उम्र से बड़े होना, दिल से नहीं। अपने दिल में जो छिपा बचपन है उसे कभी खत्म नहीं होने देना। शायद यही वजह है कि मैं आज भी बर्ताव करती हूं और हर छोटी से छोटी बातों को पापा की कही-समझाई बातें याद आ जाती हैं। मेरे पापा मेरी जिन्दगी में मेरे लिए मेरे आदर्श हैं और मैं उनकी परछाई बनने की करूंगी।
-मानसी शर्मा
प्रथम वर्ष, कला वर्ग,
रेयान कॉलेज, हनुमानगढ़
पुत्री श्री दीनदयाल शर्मा
मेरे दोस्त भी आप, मेरे गुरु भी आप
शुरूआत कैसे करूं...समझ नहीं आता। पापा के बारे में जितना भी लिखूं उतना कम है। शुरू से ही मैं पापा की और पापा मेरे चहेते रहे हैं। कहते हैं ना बेटियां अपने पापा की लाडली होती हैं और मैं पापा की सबसे लाडली रही हूं। हर बेटी चाहती है कि वो अपनी मां जैसी बने लेकिन मैं पापा जैसी बनना चाहती हूं। और जब लोग कहते है कि तूं बिल्कुल अपने पापा जैसी है तो सच कहूं वो पल मेरे लिए बहुत ही खास होता है।
पापा ने न सिर्फ बोलना, चलना, पढऩा लिखना सिखाया है बल्कि अपनी खूबियां भी हमें भेंट के रूप में दी हैं। आज जो कुछ भी लिख पा रही हूं, सब पापा की ही देन है। मेरी हैंड राइटिंग, तर्क शक्ति, नये विचार से सब पापा को देखकर उन चीजों को महसूस करके सीखा है। मम्मी से ज्यादा जुड़ाव मेरा पापा के साथ रहा है। इसी कारण अपनी हर बात, हर जरूरत, हर परेशानी में मैंने पापा से बांटी है और पापा ने हमेशा मेरा साथ दिया है।
वर्ष 2006 में दादा जी के देहावसान के बाद जब एक दिन पापा अकेले कमरे में बैठे थे तब बातों ही बातों में पापा ने पूछा कि बेटा तुम सबसे ज्यादा प्यार किसे करती हो? सुनते ही झट से बोल पड़ी-पापा, दादाजी से करती थी, लेकिन उनके बाद आपसे करती हंू। पापा ने फिर पूछा-बेटा, मुझसे कितना प्यार करती हो? तो मैंने अपने हाथों फैलाया, जितना दूर तक ले जा सकती थी, कहा-इतना प्यार करती हूं मैं आपसे। यह देखकर पापा ने मुझे बांहों में भर लिया।
पापा जब अपने साहित्य सम्मेलन के लिए कहीं बाहर चले जाते हैं तो उनके बिना घर खाली-खाली सा लगता है। मानो दिन कटना मुश्किल हो जाता है। प्यार के साथ डाँट फटकार भी जरूरी है, जो समय-समय पर मुझे मिलती रहती है। जो बहुत अच्छी लगती है। पापा-बेटी की नोकझोंक में हम रूठ भी जाएं तो दोस्त की तरह एक दूसरे को मना भी लेते हैं।
पापा ने साहित्य को हमेशा अपना हिस्सा माना है। मानो साहित्य उनके शरीर का एक अंग ही हो। पापा हमारे साथ कहीं घूमने जाएं तो साहित्य हमेशा उनके साथ ही रहता है। बातों-बातों में ही नई कविता बना लेना। कुछ नया विचार आते ही उस पर कहानी लिख देना उनकी आदत में शामिल है। यात्रा के दौरान उनकी कविताओं से रास्ते में चार चाँद लग जाते हैं।
जब मेरी किसी सहेली का जन्मदिन आता है तो पापा से पूछती हूं कि क्या तोहफा दूं ? तो पापा की हमेशा यही राय होती है कि कोई किताब दे दो। पहले तो मैं यह सुनकर मुँह बना लेती कि पापा ने यह क्या कह दिया, लेकिन जैसे-जैसे समझ आने लगी तब से किताबों के महत्त्व की जानकारी हुई।
मेरी लेखन में रुचि होने का श्रेय सिर्फ पापा को ही जाता है। मेरी लिखी कहानियां पापा के मार्गदर्शन के बिना अधूरी सी लगती है। पापा के बहुत से गुण हमें उनसे आंशिक रूप से मिले हैं। उन्होंने हम तीनों बच्चों को हमेशा प्रेरित किया है और हर काम में हमारा साथ दिया है। पापा मेरे लिए क्या मायने रखते हैं बता पाना मेरे लिए उतना ही मुश्किल है जितना कि बाहुबली-2 आने से पहले बता पाना कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा था। लेकिन इन छोटी-छोटी चार पंक्तियों में मैं बताना चाहूंगी कि- मेरे पिता भी आप
मेरी मां भी आप
मेरे दोस्त भी आप
मेरे गुरु भी आप।
पापा एक अच्छे साहित्यकार होने के साथ-साथ अपने जीवन में एक अच्छे व्यक्ति भी हैं। बच्चों के प्रति प्रेम, युवा पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कोशिश करते हैं। बड़े होने के बावजूद भी पापा ने कभी अपने आप पर अभिमान नहीं किया और जो कुछ बच्चे उन्हें बताते हैं वे बहुत ही धीरज और प्रेम से सुनते हैं और उसे अपनाते भी हैं यानी बच्चों की हर बात को वे पूरी तवज्जो देते हैं।
पापा का ये मानना है कि छोटा हो या बड़ा सब के पास अलग-अलग तरह का ज्ञान है और हर किसी से कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है।
पापा की कही एक - एक बात हमेशा याद रहती है कि उम्र से बड़े होना, दिल से नहीं। अपने दिल में जो छिपा बचपन है उसे कभी खत्म नहीं होने देना। शायद यही वजह है कि मैं आज भी बर्ताव करती हूं और हर छोटी से छोटी बातों को पापा की कही-समझाई बातें याद आ जाती हैं। मेरे पापा मेरी जिन्दगी में मेरे लिए मेरे आदर्श हैं और मैं उनकी परछाई बनने की करूंगी।
-मानसी शर्मा
प्रथम वर्ष, कला वर्ग,
रेयान कॉलेज, हनुमानगढ़
पुत्री श्री दीनदयाल शर्मा
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